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Adani @ Rath Yatra

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जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ

शाम का समय था। पुरी की गलियों में समुद्र की ठंडी हवा बह रही थी। वृद्ध साधु रामानंद अपनी छोटी सी कमंडल और झोली के साथ श्रीजगन्नाथ मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। कई दिनों से भूखे थे, किंतु उनके चेहरे पर वैसा ही संतोष था, जैसा पूर्णिमा के चंद्रमा पर शीतल प्रकाश होता है। मंदिर के द्वार पर पहुँचते ही घंटियों की गूंज और महाप्रसाद की सोंधी-सोंधी सुगंध वातावरण में फैल गई। वे वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए। पास ही एक छोटा बालक नाम था माधव दौड़ता हुआ उनके पास आया और बोला, “बाबा, प्रसाद लेंगे? माँ ने भात भेजा है।”

रामानंद ने अपनी झोली फैलाई। बालक ने उसमें गरम-गरम भात डाल दिया। साधु ने हाथ जोड़कर आभार प्रकट किया और जैसे ही पहला ग्रास मुख में डाला, उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। यह कोई साधारण भात नहीं था, यह तो प्रभु का आशीर्वाद था। बालक मुस्कराया और बोला, “माँ कहती है, यह जगन्नाथ का भात है, बाबा। इसे कोई माँगता नहीं, यह तो खुद ही भूखों तक पहुँचता है।” वहीं खड़े एक यात्री ने यह दृश्य देखा और आश्चर्य से पूछा, “क्या यहाँ हमेशा ऐसा ही होता है?”

पास बैठे एक वृद्ध पुजारी ने मंद स्वर में उत्तर दिया, “बेटा, यह मात्र अन्न नहीं, परंपरा है। जगन्नाथजी के रसोईघर में जो बनता है, उसमें ईश्वर की माया होती है। न वह कभी कम पड़ता है, न रुकता है। यहाँ भात केवल भोजन नहीं, बल्कि सेवा, श्रद्धा और समरसता का प्रतीक है। कोई भी भूखा नहीं लौटता।” उस दिन उस यात्री ने पहली बार जाना कि "जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ" कोई कहावत नहीं, बल्कि जीवंत सच्चाई है। यहाँ किसी को आमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती प्रभु स्वयं सबको आमंत्रित करते हैं।

रामानंद ने वह दिन, वह भात और वह बालक सब कुछ अपने हृदय में सदा के लिए बसा लिया। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “जहाँ भगवान स्वयं रसोई कराते हों, वहाँ भिक्षा नहीं, प्रेम मिलता है।” इसलिए आज भी कहा जाता है जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ। क्योंकि यह केवल भात नहीं, बल्कि प्रभु का प्रसाद है जो भूख मिटाता है और भेदभाव भी।

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