
Adani @ Rath Yatra
जानिए भगवान श्रीजगन्नाथ की रहस्यमयी उत्पत्ति की कहानी
पुरातन काल में जब राजा इन्द्रद्युम्न अवंतीपुर राज्य पर शासन करते थे, तब उनका हृदय
श्रीहरि की भक्ति में पूरा लीन था। वे एक ऐसे स्वरूप की कल्पना करते थे जो श्रीकृष्ण के
दिव्य रूप को न केवल मूर्त कर सके, बल्कि जिसे देखकर सामान्य जन भी मोक्ष की अनुभूति कर
सकें। वर्षों की तपस्या, यज्ञ और साधना के बाद एक रात्रि उन्होंने एक अद्भुत स्वप्न
देखा। स्वप्न में स्वयं श्रीकृष्ण प्रकट हुए। भगवान ने आदेश दिया कि वे पूर्व दिशा की
ओर समुद्र के तट पर जाएं, जहाँ एक विशेष दारु — एक दिव्य नीम का तना — लहरों के साथ
बहकर आएगा। उसी लकड़ी से भगवान स्वयं, बलराम और सुभद्रा के रूप में मूर्त होंगे। यह
उनका नया स्वरूप होगा, जो कालजयी होगा और कलियुग के जीवों का उद्धार करेगा।
राजा इन्द्रद्युम्न ने जागते ही उस स्वप्न को आज्ञा मानकर तीर्थ और पुरोहितों के साथ
यात्रा आरंभ की। उन्होंने समुद्र तट पर यज्ञ किया, तप किया, और कुछ ही दिनों में समुद्र
की लहरें एक दिव्य तने को किनारे पर ले आईं। उस लकड़ी से सुगंध आ रही थी, उसका रंग
सामान्य नहीं था, और उसका स्पर्श रोमांचकारी था, जिसमें स्वयं नारायण का वास होता है।
राजा ने तत्काल विग्रह निर्माण की व्यवस्था की, परंतु कोई भी मूर्तिकार उस लकड़ी को काट
नहीं पाया। औज़ार निष्क्रिय हो जाते। यंत्र और मंत्र निष्फल होते। निराश राजा जब
प्रार्थना में लीन थे, तब एक दिन एक वृद्ध ब्राह्मण उनके पास आया।
उस ब्राह्मण ने कहा कि वह उन तीनों विग्रहों को बना सकता है, पर उसकी एक शर्त थी — उसे
एकांत में सात दिनों तक कार्य करने देना होगा, बिना किसी व्यवधान के। सात दिनों तक कोई
द्वार नहीं खोलेगा। राजा ने शर्त स्वीकार की। पहले दिन भीतर से छेनी और हथौड़ी की
आवाजें आती रहीं। दूसरे दिन भी कुछ आहट हुई। पर तीसरे दिन से मौन छा गया। रानी गोंडिचा
व्याकुल हो उठीं। उन्होंने चिंता में राजा से प्रार्थना की कि भीतर देखा जाए। राजा ने
सातवां दिन पूर्ण होने से पहले ही कक्ष का द्वार खोल दिया।
अंदर न ब्राह्मण थे, न कोई मूर्तिकार। केवल तीन दिव्य विग्रह वहां स्थित थे — भगवान
जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा। मूर्तियाँ अधूरी प्रतीत हो रही थीं। उनके हाथ-पैर पूर्ण
नहीं थे, आकार परंपरागत नहीं था। राजा दुखी हो उठे कि उन्होंने ईश्वर की आज्ञा का
उल्लंघन किया और मूर्तियाँ पूर्ण होने से पूर्व देख लीं। तभी आकाशवाणी हुई — "हे राजन!
यही मेरा सच्चा स्वरूप है। यह रूप अधूरा नहीं, परब्रह्म का प्रतीक है। मैं अपने भक्तों
में भाव से प्रकट होता हूँ, रूप से नहीं। यह स्वरूप कलियुग के लिए है — जहाँ शुद्धता,
सहजता और समर्पण से ही मोक्ष सुलभ होगा।"
इस दिव्य आकाशवाणी के बाद राजा इन्द्रद्युम्न ने उसी अधूरे प्रतीत होते स्वरूप को
संपूर्ण मानकर मंदिर का निर्माण कराया। तब से लेकर आज तक भगवान जगन्नाथ उसी स्वरूप में
पुरी में विराजमान हैं। उनके नेत्र बड़े हैं — मानो समस्त सृष्टि को देख रहे हों। उनके
अंग सीमित हैं — पर उनका प्रभाव असीम। यह रूप शास्त्रीय सौंदर्य का नहीं, भावनात्मक
पूर्णता का प्रतीक है।
हर 12 से 19 वर्षों के बीच जब ‘नवकलेवर’ होता है, तब भगवान का यह रूप नवीन दारु से
दुबारा बनाया जाता है। आज भी वह प्रक्रिया उतनी ही रहस्यमयी है जितनी उस दिन थी — कोई
नहीं जानता मूर्तियाँ कैसे बनती हैं, कौन बनाता है। बस विश्वास है, परंपरा है, और एक
दिव्य अनुभूति है कि ईश्वर ने स्वयं अपना यह स्वरूप चुना था।
भगवान जगन्नाथ की यह उत्पत्ति कथा हमें सिखाती है कि भक्ति में बाह्य पूर्णता नहीं,
आंतरिक समर्पण आवश्यक है। जब मन ईश्वर के चरणों में पूर्ण रूप से झुक जाए, तब हर अधूरा
रूप भी परिपूर्ण हो जाता है।