Adani @ Rath Yatra
गुंडीचा मंदिर क्यों जाते हैं भगवान जगन्नाथ
पुरी की रथ यात्रा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि वह अद्भुत यात्रा है जो भक्तों और
भगवान के बीच भावनाओं का सेतु का काम करती है। हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को
भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर पुरी के
मुख्य मंदिर से गुंडीचा मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। लेकिन प्रश्न उठता है गुंडीचा
मंदिर ही
क्यों औऱ भगवान जगन्नाथ वहां क्यों जाते हैं। इस यात्रा के पीछे केवल परंपरा नहीं,
बल्कि एक
अत्यंत कोमल, मानवीय और पौराणिक भावनात्मक कहानी छिपी है।
गुंडीचा मंदिर में विश्राम करते है भगवान
गुंडीचा मंदिर को श्रीजगन्नाथ की मौसी का घर कहा जाता है, या अधिक स्पष्ट शब्दों में
कहें तो
यह उनकी माता यशोदा का मायका है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान श्रीकृष्ण
द्वारका में राजा बने, तो माता यशोदा और वृंदावन की गोपियाँ उनसे मिलने के लिए तरसने
लगीं। वृंदावन की यह व्यथा भगवान के हृदय तक पहुँची, और उन्होंने हर वर्ष एक सप्ताह के
लिए अपने परमधाम से बाहर निकलकर माँ यशोदा के पास जाने का संकल्प लिया। पुरी में यही
लीला "रथ यात्रा" के रूप में मानी जाती है। गुंडीचा मंदिर को "गुंडिचा
गृह" के नाम से भी
जाना जाता है, और यह स्थान पुरी के मुख्य मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर दूर है। यह वही
स्थान है जहाँ भगवान जगन्नाथ अपने बाल्यरूप में यशोदा मैया के स्नेह की अनुभूति करने
आते
हैं। सात दिनों तक वे वहीं विश्राम करते हैं, भक्तों से सीधे जुड़ते हैं और एक बार फिर
बालकृष्ण
बन जाते हैं।
स्कंद पुराण और पद्म पुराण में रथ यात्रा का विशेष उल्लेख मिलता है। इसमें कहा गया है
कि
आषाढ़ मास में भगवान स्वयं नगर भ्रमण पर निकलते हैं। यह भ्रमण केवल विहार नहीं, बल्कि
उस स्मृति का प्रतीक है जिसमें भगवान अपने भूतकाल, अपने भक्तों और अपने मूल स्वरूप से
मिलने जाते हैं।
एक और कहानी के अनुसार, जब माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को वृंदावन में पहली बार रथ पर
बिठाया, तो उन्होंने प्रेमवश उनसे कहा, “बेटा, हर वर्ष इसी समय मुझसे मिलने आना।” कहते
हैं, जगन्नाथ रूप में श्रीकृष्ण आज भी उस वचन को निभा रहे हैं। गुंडीचा यात्रा हमें
सिखाती है
कि भगवान केवल सिंहासन पर बैठे देवता नहीं, वे अपने भक्तों की भावनाओं को समझने वाले
सखा हैं। जब वे मुख्य मंदिर से निकलते हैं और साधारण रथ पर सवार होकर सड़कों पर आते
हैं, तो वे अपने आप को सभी भेदभाव से मुक्त कर देते हैं। रथ खींचने का सौभाग्य राजा और
रंक, ब्राह्मण और शूद्र, स्त्री और पुरुष सभी को मिलता है। भगवान स्वयं अपने भक्तों के
बीच
आते हैं, बिना निमंत्रण, बिना विशेषता। वे सड़कों पर मुस्कराते हैं, और भक्तों की आँखों
से बहते
आँसू उनके स्वागत की भाषा बन जाते हैं।
सात दिनों तक भगवान गुंडीचा मंदिर में रहते हैं। वहाँ उनकी विशेष पूजा होती है, भोग
बदलता है, गीत बदलते हैं, और वातावरण में एक अनोखी ममता फैल जाती है। इसके बाद,
आषाढ़ शुक्ल दशमी को ‘बहुड़ा यात्रा’ होती है जब भगवान पुनः अपने मूल मंदिर में लौटते
हैं।
इस वापसी को वैसी ही भावना से देखा जाता है जैसे कोई पुत्र छुट्टियाँ बिताकर माँ के घर
से
वापस लौटता है। गुंडीचा यात्रा केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, यह उस अमर प्रेम की यात्रा
है
जिसमें भगवान अपने अतीत, अपनी माँ, अपने बचपन और अपने भक्तों से मिलने निकलते हैं।
गुंडीचा यात्रा वह स्मरण है कि भगवान केवल मंदिर में नहीं रहते, वे वहाँ जाते हैं जहाँ
प्रेम,
प्रतीक्षा और ममता उन्हें बुलाती है।