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Adani @ Rath Yatra

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बीमार होने पर पुरी में दर्शन क्यों नहीं देते श्रीजगन्नाथ

पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर विश्व के सबसे रहस्यमयी और जीवंत मंदिरों में गिना जाता है। यहाँ भगवान केवल एक विग्रह नहीं, एक जीवंत चेतना हैं—जिनका जन्म, बाल्यकाल, स्नान, रथ यात्रा और यहां तक कि बीमारी भी होती है। हर वर्ष पूर्णिमा से प्रतिपदा तक, सात दिनों के लिए मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। भक्तों को दर्शन नहीं होते, मंदिर सूना हो जाता है, और जगन्नाथ जी 'शयन' में चले जाते हैं। सवाल यह उठता है कि जब भगवान सर्वशक्तिमान हैं, तो वह बीमार क्यों होते हैं। वे दर्शन क्यों नहीं देते और क्या सचमुच लक्ष्मीजी उन्हें छोड़कर चली जाती हैं।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन श्रीजगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का ‘स्नान यात्रा’ के अवसर पर अभिषेक होता है। इस दिन 108 कलशों से शुद्ध जल से उनका स्नान कराया जाता है। इस महाअभिषेक के बाद भगवानों को बुखार हो जाता है। कहते हैं कि इतनी ठंडी जलधारा से स्नान करने पर जैसे मनुष्य को ज्वर हो जाता है, वैसे ही भगवान को भी 'बुखार' हो जाता है। यही काल ‘अनवसर’ कहलाता है।

इन सात दिनों में भगवान विश्राम करते हैं। उन्हें आयुर्वेदिक काढ़ा पिलाया जाता है, गर्म वस्त्र पहनाए जाते हैं, और उन्हें ‘दशमूल काढ़ा’ से चिकित्सा दी जाती है। मंदिर के भीतर विशेष रूप से "अनसार घर" में उनकी सेवा होती है। केवल सेवायत पुजारी ही उन्हें देख सकते हैं। भक्तों के लिए पट पूरी तरह बंद रहते हैं।

महंत राघवाचार्य की मानें तो यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि गहरी आध्यात्मिक अनुभूति है। जब भगवान स्नान के बाद बीमार होते हैं और घर लौटते हैं, तो माता लक्ष्मी घर में नहीं रहतीं। ऐसा माना जाता है कि वह नाराज़ होकर मायके चली जाती हैं, क्योंकि उन्हें स्नान यात्रा में आमंत्रित नहीं किया गया। यह कथा मानवीय भावनाओं को दर्शाती है जहाँ एक पत्नी की उपेक्षा, उसका मान, और ईर्ष्या भी दिव्यता का हिस्सा बन जाते हैं। इस काल में भगवान श्रीजगन्नाथ की मूल मूर्ति को छिपा दिया जाता है और उनके स्थान पर एक विशेष चित्र रूप में ‘अनसार मूर्ति’ की पूजा होती है। इस पूरे सप्ताह मंदिर के भीतर चुप्पी होती है, जैसे कोई रोगी गहन विश्राम में हो। यह दौर भगवान की ‘मानव लीला’ को दर्शाता है। इस कालखंड में भक्तों को यह समझने का अवसर मिलता है कि भगवान केवल पूजनीय नहीं, उनसे जुड़ना भी है उनके जीवन के हर पहलू को अनुभव करना भी भक्ति का ही रूप है।

यह भी एक अनूठी बात है कि जब भगवान स्वस्थ हो जाते हैं, तब वे ‘नवजौवन दर्शन’ के रूप में प्रकट होते हैं। इस दिन मंदिर में भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है। मानो एक रोगी फिर से स्वस्थ होकर अपने प्रियजनों से मिलने बाहर आया हो। पुरी का यह अनूठा पर्व हमें यह सिखाता है कि ईश्वर हमारे जैसे ही हैं—हमारी भावनाएं, हमारी थकान, हमारा प्रेम और यहाँ तक कि हमारी बीमारियाँ भी उनके अनुभव में आती हैं। जब भगवान भी विश्राम लेते हैं, तो भक्त भी धैर्य सीखते हैं। जब भगवान भी अकेले रहते हैं, तो भक्त भी उनकी अनुपस्थिति की गहराई को समझते हैं।

इसलिए, पुरी में जब मंदिर के पट बंद होते हैं, तो वह मौन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता, वह भक्त और भगवान के बीच एक अटूट संबंध का संकेत होता है। उस मौन में भक्ति की सबसे ऊँची अभिव्यक्ति छिपी होती है प्रतीक्षा। जब वह सात दिन बीतते हैं, भगवान फिर से मुस्कराते हैं, रथ पर सवार होते हैं, और भक्तों की भीड़ में एक वचन फिर जीवित हो उठता है।

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