Adani @ Rath Yatra
पुरी- गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय चैतन्य महाप्रभु की भक्ति यात्रा का अंतिम पड़ाव
पुरी नगरी जितनी पुरानी है उतनी ही जीवंत भी है। यह केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि भक्ति,
दर्शन और मोक्ष का संगम है। जहाँ एक ओर यह श्रीजगन्नाथ भगवान का शाश्वत निवास मानी
जाती है, वहीं दूसरी ओर यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए भी अत्यंत पावन और
ऐतिहासिक स्थल है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक, भक्ति योग के महान प्रचारक और श्रीकृष्ण
प्रेम
के जीवंत अवतार श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों को पुरी में व्यतीत
किया।
यहीं उन्होंने भगवान जगन्नाथ की नित्य पूजा की, और अपने प्रेम भरे कीर्तन और ध्यान से
इस
नगरी को भक्ति की राजधानी में बदल दिया।
चैतन्य महाप्रभु की भक्ति यात्रा का अंतिम पड़ाव रहा पुरी
चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 ई. में नवद्वीप (वर्तमान पश्चिम बंगाल) में हुआ था। वे
बचपन से
ही विद्वान और प्रभावशाली वक्ता थे, लेकिन युवावस्था में एक गहन आध्यात्मिक परिवर्तन ने
उन्हें संकीर्तन और कृष्ण भक्ति की ओर मोड़ दिया। उन्होंने 'हरिनाम संकीर्तन'
भगवान के नामों
का सामूहिक कीर्तन को भक्ति का सरल और सशक्त माध्यम बताया। उनकी भक्ति यात्रा का
अंतिम और सर्वाधिक आध्यात्मिक रूप यहीं पुरी में प्रकट हुआ। वे जीवन के अंतिम 18 वर्षों
तक
जगन्नाथ पुरी में रहे। कहते हैं, वे रोज़ भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने मंदिर जाया करते
थे और
भावविभोर होकर उनके चरणों में लोट जाया करते थे।
चैतन्य और जगन्नाथ - दो स्वरूप, एक आत्मा
माना जाता है कि जब चैतन्य महाप्रभु पहली बार रथ यात्रा में सम्मिलित हुए, तो भगवान
जगन्नाथ को देखकर वे अपने आपे में नहीं रहे। वे दौड़ते हुए रथ के समीप पहुँचे और
'श्रीकृष्ण'
का नाम लेते हुए मूर्छित हो गए। वहां मौजूद जनसमूह भी उनकी भक्ति को देखकर हैरान हो
गया।
महाप्रभु की भक्ति कोई साधारण उपासना नहीं थी, उसमें राधा-भाव का समावेश था। वे स्वयं
को राधा की तरह मानते थे और श्रीकृष्ण (जगन्नाथ) को अपने प्रिय के रूप में देखते थे।
यही
भाव गौड़ीय सम्प्रदाय का मूल है जहाँ भक्ति में सम्पूर्ण आत्मविलय होता है और भक्त और
भगवान एक हो जाते हैं।
गम्भीरा कक्ष - जहां महाप्रभु और जगन्नाथ एक हो जाते थे
पुरी में आज भी 'गम्भीरा' नाम का एक स्थान है, जहाँ चैतन्य महाप्रभु रहते थे।
यह छोटा-सा
कक्ष भक्तों के लिए मंदिर के समान पूज्य है। यहीं वे रात्रि में एकांत साधना करते थे।
कहते हैं कि
रात्रि के समय वे कभी हँसते, कभी रोते, कभी कीर्तन करते और कभी भगवान के नाम का
उच्चारण करते हुए समाधिस्थ हो जाते थे। गम्भीरा में रखा हुआ उनका ‘जप माला’, ‘कम्बल’,
‘चप्पल’ और ‘ताम्बे का जलपात्र’ आज भी भक्तों के लिए गहन भक्ति और स्मृति का माध्यम
हैं।
गौड़ीय सम्प्रदाय की वैश्विक यात्रा की शुरुआत
पुरी में चैतन्य महाप्रभु ने केवल भक्ति नहीं की, बल्कि भक्ति आन्दोलन की नींव भी रखी।
उनके
अनुयायियों ने इस सम्प्रदाय को पूरे भारत और बाद में विश्व भर में फैलाया। 20वीं
शताब्दी में
श्रील प्रभुपाद ने इस सम्प्रदाय को 'इस्कॉन' के माध्यम से वैश्विक आंदोलन बना
दिया, जिसकी
जड़ें चैतन्य महाप्रभु की पुरी में की गई साधना में ही हैं।
पुरी में महाप्रभु की भक्ति अब भी जीवित है
पुरी केवल भगवान जगन्नाथ की नगरी नहीं, यह चैतन्य महाप्रभु की प्रेममयी भक्ति का भी
केंद्र
है। यहाँ आज भी हर कीर्तन, हर ‘हरे कृष्ण’ की ध्वनि में महाप्रभु की उपस्थिति अनुभव की
जा
सकती है। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए पुरी वह तीर्थ है, जहाँ भगवान और भक्त के बीच
की
सीमाएं विलीन हो जाती हैं।